शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

"लुप्त होते गिद्ध"

कुछ साल पहले, मैं अपने गाँव में 9-10 गिद्धों का एक समूह देखा करता था. वे गांव के बाहर एक बहुत ऊंचे और घने नीम के वृक्ष की भारी और उच्च शाखाओं पर बने घोंसले की एक बस्ती में रहते थे. आज मेरे गांव में न वह नीम का वृक्ष बचा है और न ही गिद्ध रहे है. गिद्ध प्रतिदिन नीम के पेड़ से सूर्योदय के बाद उड़ान भरते और सूर्यास्त के पहले लौट आते थे. जब भी किसी जानवर की मौत होती तो गाँव के लोग मरे हुए जानवर की खाल निकालते और जानवर के बचे हुए अवशेषों को सैकड़ों गिद्ध मिनटों में साफ़ कर देते थे. हडि्डयों का ढेर, उस ढेर पर गिद्धों का झुरमुट और आकाश में ऊंची उड़ान भरते गिद्ध आज भी मेरी आंखों में बसे हैं. तो क्या लगभग बीस साल पहले सैकड़ों की संख्या में नज़र आने वाले ये गिद्ध लुप्त हो जाएँगे? क्या इन्हें बचाने के कोई प्रयास हो रहे हैं? हरियाणा के पिंजौर में वर्ष 2001 में गिद्धों पर 'वल्चर कंज़र्वेशन ब्रीडिंग सेंटर' शुरु हुआ था. वहाँ के मुख्य वैज्ञानिक विभु प्रकाश ने बताया कि यहाँ गिद्धों की तीन प्रजातियों को पाला जा रहा है. इस प्रोजेक्ट के लिए हरियाणा सरकार ने पाँच एकड़ जमीन और प्रशासनिक मदद उपलब्ध कराई है. ब्रितानी सरकार के एक कार्यक्रम के तहत 'डार्विन इनिशिएटिव फ़ॉर द सरवाइवल ऑफ़ स्पीसिज़' पिंजौर के सेंटर को आर्थिक मदद मुहैया करा रहा है.
हैरान कर देने वाली बात ये है कि गिद्धों को बचाने में 'वल्चर कंज़र्वेशन ब्रीडिंग सेंटर' को केंद्र और हरियाणा सरकार की ओर से कोई आर्थिक सहायता नहीं दी जाती. वहाँ पल रहे गिद्धों के खाने पर हर साल दो लाख रुपए खर्च होते हैं. 1990 के दशक में जब गिद्धों की संख्या अचानक घटने लगी तो पक्षी प्रेमी और वैज्ञानिक जागे. वर्ष 2003 में अमरीका के एक वैज्ञानिक ने पाकिस्तान में गिद्धों की तेज़ी से हुई मौत के कारणों की जाँच की और इसकी वजह एक दवा 'डाइक्लोफ्लिनेक' बताई. इस दवा का इस्तेमाल गाय-भैंस को दर्द से राहत देने के लिए होता है. इसका अंश भारत में पाए जाने वाले गिद्धों में भी मिला. यह दवा मरे हुए जानवरों के शरीर मे मौजूद रहती है और इनका माँस खाने से गिद्धों की आंतों पर असर होता है और उनकी मौत हो जाती है.यही दवा इन पक्षियों की मौत की सबसे बड़ी वजह है. हालांकि गुजरात में पतंगों की डोर से भी गिद्ध मारे जाते हैं.
भारत सरकार ने 2006 में इस दवा के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया था, पर तब तक लाखों गिद्ध मौत का शिकार बन चुके थे. लेकिन 'डाइक्लोफ्लिनेक' का इस्तेमाल अवैध रूप से आज भी जारी है. विभु प्रकाश बताते हैं, "वैसे तो भारत में गिद्धों की नौ प्रजातियाँ पाई जाती हैं. लेकिन इस सेंटर में वाईट बैट, लॉंन्ग बिल्ड और स्लेंडर बिल्ड तीन प्रजातियों को ही पाला पोसा जा रहा है.
1980 के दशक की शुरुआत में इस प्रजाति के गिद्धों की संख्या तकरीबन चार करोड़ के आसपास थी. पिछले 25-30 साल में वाईट बैट 99 फ़ीसदी, लॉंन्ग बिल्ड और स्लेंडर बिल्ड 97 फ़ीसदी ख़त्म हो गए हैं.” उन्होंने बताया कि अब भारत में लगभग एक हज़ार स्लेंडर बिल्ड, 11 हज़ार वाईट बैट और 44 हज़ार लॉन्ग बिल्ड गिद्ध बचे हैं. ये दुनिया के लुप्त हुए जानवर और पक्षी की सबसे तेज़ी से खत्म होने वाली एकमात्र प्रजाति है. विभू प्रकाश के मुताबिक, "इसमें कोई शक़ नहीं कि यदि हम जल्द नहीं जागे तो गिद्ध दुनिया से ही खत्म हो जाएँगे." स्लेंडर बिल्ड गिद्ध पश्चिम बंगाल, असम और गंगा के ऊपरी समतल इलाकों में पाए जाते थे लेकिन अब ये केवल असम में ही दिखाई देते हैं.
लॉन्ग बिल्ड गिद्ध राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में ही बचे हैं. पिंजौर के 'वल्चर कंज़र्वेशन ब्रीडिंग सेंटर' की शुरूआत भरतपुर केवलादेव नेशनल पार्क से लाए गए एक बीमार गिद्ध से हुई थी. आज वहाँ गिद्धों की संख्या 121 है. इस प्रयोग से प्रभावित होकर पश्चिम बंगाल और असम में भी एक-एक 'वल्चर कंज़र्वेशन ब्रीडिंग सेंटर' खोला गया है.पश्चिम बंगाल वल्चर सेंटर में 53 और असम वल्चर सेंटर में 14 गिद्धों को रखा गया है. मध्य प्रदेश में भी एक वल्चर सेंटर खोलने की योजना पर काम चल रहा है. दक्षिण एशिया के नेपाल और पाकिस्तान में भी वल्चर सेंटर खोलने की योजना है.
गिद्धों को पिंजरों में रखा जाता है. वैज्ञानिक विभू प्रकाश का कहना है, "गिद्धों को बचाने के लिए बड़े पिंजरों में उन्हें कैद रखना हमारी मजबूरी है. आज़ाद होने पर ये डाइक्लोफ़्लिनेक प्रभावित भोजन खाएँगे और मर जाएँगे." पिजरे के अंदर उन्हें प्राकृतिक माहौल देने की कोशिश की गई है. अंदर पेड़ लगे हैं. उनके लिए घोंसले बनाए गए हैं. गिद्धों की देखभाल के लिए एक डॉक्टर भी सेंटर में मौजूद है. इसके अलावा देशभर से बीमार गिद्धों को इस सेंटर में लाया जाता है. गिद्धों की हरेक गतिविधि पर नज़र रखने के लिए इस सेंटर में तीन सीसी टीवी कैमरे लगाए गए हैं.जिसके जरीए 24 घंटे गिद्धों की निगरानी की जाती है. गिद्धों की दिनचर्या सुबह के खाने पर निर्भर करती है. यहां गिद्धों को सप्ताह में दो बार खाने में बकरा दिया जाता हैं. एक बकरे को दस दिन तक सेंटर में ही जिंदा रखकर उसकी जांच की जाती है. डाक्लोफिनेक की संभावना ना होने के बाद ही उसे यहाँ मौजूद गिद्धों को परोसा जाता है. महीने में एक बार बड़े पिंजरों की साफ़ सफ़ाई की जाती है.
गिद्ध एक सामाजिक पक्षी है. वह झुंड में रहना पसंद करता है और अपने साथी पक्षी के प्रति बेहद ईमानदार होता है. साल में एक बार जनवरी-फ़रवरी के महीने में वह अंडे देता है.अंडे सेकने से लेकर उनके खाने-पीने तक की ज़िम्मेदारी माता-पिता बराबर निभाते हैं. लेकिन ये भी बदल रहा है. विभु प्रकाश के मुताबिक, "तेज़ी से घटती संख्या के चलते गिद्धों के व्यवहार में भी परिवर्तन आ रहा है." वे कहते हैं कि 15 साल तक वे गिद्धों को कंज़र्वेशन ब्रीडिंग सेंटर में रखना चाहते हैं. योजना के तहत वे 15 साल बाद तीनों प्रजाति के 100 जोड़े आज़ाद करना चाहते हैं. लेकिन इससे पहले भारत में डाइक्लोफ़्लिनेक के इस्तेमाल पर पूरी तरह पाबंदी लगाना ज़रूरी है, तभी आज़ाद किए गए गिद्धों का जीवन सुरक्षित होगा. कभी दिल्ली के तिमारपुर के डंपिंग ग्राउंड के आसपास मंडराने वाले गिद्ध अब नज़र नहीं आते हैं.
नेपाल में भी गिद्धों के अस्तित्व पर सवाल खड़ा है, वहाँ पिछले 18 वर्षों में 50 हज़ार से घटकर इनकी संख्या केवल 50 के आसपास रह गई है. पिंजौर जाने से पहले मैं मोलड़बंद गाँव भी गया और नहर के दूसरी तरफ़ मेरी निगाहें गिद्धों को दूर तक तलाशती रहीं, लेकिन मुझे एक भी गिद्ध नज़र नहीं आया. गिद्धों को बचाने की कोशिश के तहत पशुओं को दी जाने वाली उस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया है जिसके कारण गिद्धों की मौत हो रही थी. संरक्षण कार्यकर्ताओं का कहना है कि पिछले 12 सालों में गिद्धों की संख्या में 97 प्रतिशत की कमी आई है और वे विलुप्त होने के कगार पर पहुँच गए हैं. कहा जा रहा है कि पशुओं को दर्दनाशक के रुप मे एक दवा डायक्लोफ़ेनाक दी जाती है और इस दवाई को खाने के बाद यदि किसी पशु की मौत हो जाती है तो उसका मांस खाने से गिद्धों मर जाते हैं. भारत, पाकिस्तान और नेपाल में हुए सर्वेक्षणों में मरे हुए गिद्धों के शरीर में डायक्लोफ़ेनाक के अवशेष मिले हैं.
ब्रिटेन के रॉयल सोसायटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ बर्ड्स में अंतरराष्ट्रीय शोध विभाग के प्रमुख डेबी पेन का कहना है कि गिद्धों की तीन शिकारी प्रजातियाँ चिंताजनक रुप से कम हुई हैं. उनका कहना है, "हालांकि अब भारत में डायक्लोफ़ेनाक पर प्रतिबंध लगा दिया गया है लेकिन भोजन चक्र से इसका असर ख़त्म होने में काफ़ी वक़्त लगेगा."
एशियाई पर्यावरण के संतुलन में गिद्धों की बड़ी भूमिका है.सदियों से ये गिद्ध ही मरे हुए जानवरों के अवशेषों को ख़त्म करते रहे हैं जिससे संक्रमण रुकता रहा है. एशिया के भोजन चक्र में उनका महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन पिछले एक दशक से उनकी संख्या लगातार घटती जा रही है. हालांकि भारत सरकार शुरुआत में कुछ हिचक रही थी लेकिन बाद में वह मान गई कि इस दवाई के कारण ही गिद्धों की मौत हो रही है. भारत सरकार से संबद्ध नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ़ ने डायक्लोफ़ेनाक पर प्रतिबंध लगाने की अनुशंसा की थी.बाद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इसे स्वीकार कर लिया और डायक्लोफ़ेनाक की जगह दूसरी दवाइयों के उपयोग को मंज़ूरी दे दी.
'गिद्ध बचाने के लिए जानवरों की दवा बदलें' एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि यदि भारत में लगातार विलुप्त हो रहे गिद्धों को बचाना है तो जानवरों को दी जाने वाली दवा को बदलना होगा. इसमें कहा गया है कि इस दवा को खाने वाले जानवरों का मांस खाकर पिछले 15 सालों में गिद्ध की प्रजाति ख़त्म हुई है. वैज्ञानिकों ने सलाह दी है कि जानवरों को डायक्लोफ़ेनाक नाम का दर्दनाशक देने की जगह मेलोक्सिकैम दी जानी चाहिए जो जानवरों को नुक़सान भी नहीं पहुँचातीं. सर्वेक्षण रिपोर्ट पब्लिक लाइब्रेरी ऑफ़ साइंस ने प्रकाशित की है. वैसे तो गिद्ध भारतीय समाज में एक उपेक्षित सा पक्षी है लेकिन साफ़-सफ़ाई में इसका सामाजिक योगदान बहुत महत्वपूर्ण है. विशेषज्ञों का मानना है कि यदि गिद्धों के विलुप्त होने की रफ़्तार यही रही तो एक दिन ये सफ़ाई सहायक भी नहीं रहेंगे. जैसा कि वे बताते हैं 90 के दशक के शुरुआत में भारतीय उपमहाद्वीप में करोड़ों की संख्या में गिद्ध थे लेकिन अब उनमें से कुछ लाख ही बचे हैं.
विशेषज्ञ बताते हैं कि उनकी संख्या हर साल आधी के दर से कम होती जा रही है. और इसका कारण है डायक्लोफ़ेनाक, जो कि जानवरों को दी जाने वाली एक दर्दनाशक दवा है और 90 के दशक से ही जानवरों को दी जा रही है. इस दवा को खाने के बाद जो जानवर मर गए उनके मांस को खाकर गिद्धों की प्रजाति भी ख़त्म होने लगी. वैज्ञानिकों का दावा है कि इस दवा का जो विकल्प ढूंढ़ा गया है उसका नाम मेलोक्सिकैम है और यह जानवरों और गिद्धों दोनों के लिए नुक़सानदेह नहीं है. इस दवा की एक ही दिक्क़त है कि ये फिलहाल दोगुनी महंगी है.
वैज्ञानिकों का कहना है कि इस दवा को सस्ता करना अब सरकारों के हाथों में होगा. वे जल्दी ही इस संबंध में भारतीय अधिकारियों से भी मिलने वाले हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि गिद्धों को न केवल एक प्रजाति की तरह बचाया जाना ज़रुरी है बल्कि यह पर्यावरणीय संतुलन के लिए भी ज़रुरी है. वे चेतावनी दे रहे हैं कि गिद्ध नहीं रहे तो आवारा कुत्तों से लेकर कई जानवरों तक मरने के बाद सड़ते पड़े रहेंगे और उनकी सफ़ाई करने वाला कोई नहीं होगा और इससे संक्रामक रोगों का ख़तरा बढ़ेगा.
पक्षियों का संरक्षण करने वाले विशेषज्ञों का कहना है कि लंबी दूरी तक उड़ान भरने गिद्धों की प्रजाति एक घातक बीमारी दूर-दूर तक फैला सकती है और ये बीमारी ख़ुद गिद्धों के लिए भी जानलेवा भी साबित सकती है. माना जा रहा है कि ये बीमारी एक विषाणु की वजह से होती है और इसकी वजह से भारत, पाकिस्तान और नेपाल में हज़ारों गिद्धों की जान जा चुकी है. लेकिन कुछ ग़नीमत ये है कि अभी इस बीमारी से प्रभावित प्रजाति के गिद्ध ज़्यादा दूरी तक नहीं जा पाते और इसी वजह से ये बीमारी बहुत दूर तक नहीं जा सकी है. मगर वैज्ञानिकों का कहना है कि गिद्ध की एक और प्रजाति इस बीमारी का शिकार हो सकती है जिससे काफ़ी मुश्किलें भी खड़ी हो सकती हैं. इस बीमारी की वजह से गिद्ध काफ़ी सुस्त हो जाते हैं और उनका सिर भी लटक जाता है. यही नहीं इसके एक माह के भीतर ही उसकी मौत भी हो जाती है. इससे आपस में ही जुड़ी और ज़्यादा दूर नहीं जाने वाली तीन प्रजातियों पर तो प्रभाव पड़ ही रहा है .
एक चौथी यूरेशियाई प्रजाति भी इसका शिकार हो सकती है. इससे कुछ अन्य प्रजातियों पर भी असर पड़ने की आशंका व्यक्त की जा रही है. उपग्रहों के ज़रिए शोधकर्ताओं ने दो ऐसे गिद्धों को देखा जो उत्तर भारत से मंगोलिया जा पहुँचे. ब्रिटेन की रॉयल सोसाइटी फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ़ बर्ड्स में अंतरराष्ट्रीय शोध की प्रमुख डॉ डेबी पेन का इस बारे में कहना है कि अभी गिद्ध की जो प्रजातियाँ इस बीमारी से प्रभावित पाई जा रही हैं वो ज़्यादा दूरी तक नहीं जा सकी हैं और शायद इसी की वजह से बीमारी को फैलने से रोकने में मदद मिली होगी. उन्होंने कहा कि वैसे सबकी नज़र इस बात पर है कि क्या इससे यूरेशियाई गिद्ध भी प्रभावित हो सकते हैं जो इन गिद्धों के सबसे नज़दीक माने जाते हैं.
ज़ूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ़ लंदन के डॉ एंड्र्यू कनिंघम का इस बारे में कहना है कि भारत में इस बीमारी की शुरुआत के बाद से यूरेशियाई गिद्धों को जाड़े के मौसम में भारत में देखा गया है इसलिए इस बीमारी के उन गिद्धों तक भी पहुँचने की आशंका बढ़ रही है. इसका नतीजा ये होगा कि यूरोप, अफ़्रीका और मध्य पूर्व के गिद्ध भी कुछ ही वर्षों में ग़ायब होने के कग़ार पर पहुँच जाएंगे. इस बीमारी की वजह से भारत में काफ़ी बड़े पैमाने पर गिद्धों की मौत हुई है.
वर्ष 1991 से 2000 के बीच हुए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि इन गिद्धों की संख्या एक दशक से भी कम वर्षों में 95 फ़ीसदी तक कम हुई है. डॉ पेन ने बताया कि इस बीमारी से प्रभावित तीन प्रजातियों के गिद्धों की संख्या में प्रति वर्ष 25 प्रतिशत की दर से कमी आ रही है. उनका मानना है कि ये संख्या काफ़ी बड़ी है और इससे सभी ख़ासे चिंतित भी हैं. उन्होंने बताया कि दो यूरेशियाई और हिमालय के दो गिद्धों में पहचान के लिए उपग्रह से जुड़े छोटे यंत्र भी लगाए गए. इनमें से एक तो कहीं नहीं गया और दूसरे का कुछ पता नहीं है जिससे लग रहा है कि या तो उसकी मौत हो गई या फिर वो यंत्र कहीं गिर गया. डॉ पेन ने कहा कि बॉबे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी उनकी भागीदार है और गिद्धों को पकड़ने या इस बारे में और जानकारी जुटाने में उनकी मदद करती है. अब ब्रिटेन से मिलने वाली मदद से ये तीनों संस्थाएं अक्तूबर तक मध्य पूर्व में गिद्धों पर नज़र रखने और पहचान के लिए उनमें यंत्र लगाने का काम करेंगी. ये काम जॉर्जिया, यमन, ईरान और जॉर्डन में शुरू होगा.

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