आखिर सरकार व प्राइवेट उद्योगपतियों को विकास के नाम पर हरे-भरे खेत, जंगल व पहाड़ ही नज़र क्यों आते हैं? जबकि इस प्रकार के विकास का फायदा किसान,आदिवासी व पर्यावरण को नहीं हो रहा है.किसानो व आदिवासियों को मजबूरन मजदूर बनाना क्या विकास है? इस विकास के मायने है-आम आदमी की बजाय खास आदमी का, प्राइमेरी ईकोनॉमी की जगह करकट अर्थव्यवस्था का विकास जो प्रकृति-पर्यावरण को विनाश की ओर ले जाती हैं.विकास की अंधी दौड़ ने बीते 20-25 वर्षों में नदी-जल, जंगलों व पहाड़ों को लील गयी अब खेतों की बारी है. सुप्रीम कोर्ट का निर्णय न्याय तो नहीं, बल्कि अन्याय होने में रुकावट व विलम्ब मात्र है. जमीन अधिग्रहण की लूटपात तो 5-6 सालों से चल रही थी,तब यही कोर्ट आँख मूंद कर मौन क्यों था?
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