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रविवार, 17 जनवरी 2010

अक्षय ऊर्जा स्रोतों से हो ऊर्जा सुरक्षा

अक्षय ऊर्जा स्रोतों से हो ऊर्जा सुरक्षा
सुवालाल जांगु
इतिहास में कुछ क्षण ऐसे आते है जब विश्व अलग अलग रास्ते जाने का चुनाव कर सकता है। यह ऐसा निर्णायक क्षण है, हम हरित समृद्धि और ऊर्जा सुरक्षा के सुनहरे भविष्य की और जाने का रास्ता चुन सकते है, या गतिरोध वाला रास्ता जिस पर हम जलवायु परिवर्तन के बारे में कुछ भी न करें और उसका खामियाजा हमारी वर्तमान व भावी संतानों को भुगतना पड़े। जाहिर है, चुनाव करना कतई कठिन नहीं है। विकास की दौड़ में पर्यावरण की हार हो गयी है। हमने विकास के रूप में प्रकृति पर आक्रमण करने का सामूहकि अपराध किया। जिसकी सजा हमें आने वाले दशकों व शताब्दियों तक जलवायु बदलाव के भंयकर परिणामों के तौर पर मिलती रहेगी।
दुनिया के सभी देश पृथ्वी के बढ़ते तापमान को लेकर चिंतित हैं और इस कोशिश में जुटे हैं कि जलवायु परिवर्तन व ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के उपायों पर किस प्रकार से समझौता पर पहुंचा जाये। लेकिन कोपेनहेगन सम्मेलन में अड़ंगें रहे है इन शब्दों के: बाध्यकारिता, स्वेच्छा व शर्ते। नूरा कुश्ती की तरह सभी ने अपने अपने दांव व दावे तैयार कर रखे है: इससे कम नहीं और इसे अधिक नहीं। इस सम्मेलन से किसी कारगर समझौता पर सहमति होने की उम्मीद नहीं थी। फिर भी भारी दबाऔ व नाकामयाबी का चेहरा छुपाने से बचने के लिए विकसित देशों ने कार्बन उर्त्सजन कट आWफ पर गैर बाध्यकारी समझौता किया। बेसिक देशों को छोड़कर, छोटे व कमजोर देश विकासशील देश इस समझौते का विरोध कर रहे है।
जलवायु परिवर्तन व ग्लोबल वार्मिंग की चिंता सिर्फ छोटे द्वीपीय देशों की नहीं है, अपितु यह सम्पूर्ण पृथ्वी की। जिसके लिये बड़े देश जिम्मेदार है। दुनियाभर में आम आदमी की मुख्यत: तीन चिंतायें है: ऊर्जा, खाद्य व जलवायु सुरक्षा। ये तीनों सुरक्षायें एक दूसरे में उलझी व गुथी हुई है। इन्हें सुलझानें के लिये एक ऐसी सहमति वाली योजना की आवश्यकता है जिसमें न केवल पूंजी, तकनीक व नीति का समावेश हो बल्कि जो निश्चित समयावधि में पूरी होने के साथ साथ बाध्यकारी भी हो।
यह कैसी विड़ंबना है कि विश्व की प्रमुख ताकतें आर्थिक संकट के समय तो रातों रात सहमति पर पहुंच जाती है, लेकिन जलवायु संकट में कर्इ वर्षों व दशकों के बाद भी किसी समझौता पर सहमत नहीं होती है। क्या इन्हें आर्थिक विकास उपरोक्त सुरक्षाओं के पिछे नजर नहीं आता है? क्यों आम आदमी की इन सुरक्षा चिंताओं को बड़े देशों के कार्बन कट आWफ यानी उर्त्सजन के त्याग के साथ साथ तकनीक व पूंजी के दान और एड व ग्राण्ट की डीलिंग व लीडिंग की सोदेबाजी की दया पर निर्भर बना दिया? जलवायु सुरक्षा का मतलब यह है कि ऊर्जा उत्पादन व उपभोग की ऐसी तकनीक विकसित की जाये जिससे ग्रीन हाउस गैसों व क्लोरो फ्लोरो कार्बन का उत्सर्जन कम हो सके। इन गैसों के उत्सर्जन के लिए काफ़ी हद तक मानवीय विकास गतिविधियों से जुड़ें ऊर्जा स्रोतों को ज़िम्मेदार माना जाता है। उदाहरण के तौर पर 2020 तक बांग्लादेश के एक करोड़ से अधिक तटीय निवासी उजड़ जायेंगे.
जीवाश्म ईंधन का प्रयोग, इमारतों का निर्माण, औद्योगिक विकास, आधारभूतढांचा का निर्माण, मनोरंजन व्यासाय के लिए जंगलों की कटाई जैसी गतिविधियों ने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि की है और अगर ये सिलसिला इसी तरह चलता रहा तो पृथ्वी का बहुत सा हिस्सा रहने लायक़ नहीं बचेगा। ग्लोबल वार्मिंग वातावरण में कार्बन डाईआक्साइड के स्तर में बढ़ोतरी के कारण होती है, जो विकिरणयुक्त ऊष्मा को रोकने में एक चादर की तरह काम करती है और वैश्विक तापमान को खतरनाक स्तर तक बढ़ाती है, इसके चलते हिमनद पिघलने लगते है, समुद्र की सतह ऊपर चढ़ने लगती है, मौसम अनियमित हो जाता है और जलवायु में परिवर्तन आने लगता है। ऊर्जा के वो प्राकृतिक स्रोत जिनका क्षय नहीं होता या जिनका नवीकरण होता रहता है और जो प्रदूषणकारी नहीं हैं, उन्हे अक्षय ऊर्जा के स्रोत कहा जाता है. जैसे सूर्य, जल, पवन, ज्वार-भाटा, भूताप आदि.
सौर उर्जा मानव समाज के लिए उर्जा का सबसे पुराना ज्ञात स्त्रोत है और यह आज प्रयोग में लायी जाने वाली उर्जा के अन्य रूपों की जननों है। यह संभवत: पृथ्वी के अस्तित्व के हज़ारों सालों के बाद भी ऊर्जा का सर्वाधिक विश्वसनीय स्त्रोत हैं, भारत को साल में 300 दिनों की धूप प्राप्त होती हैं। हजारों सालों से हम सूर्ज की ऊर्जा का उपभोग करते आ रहे हैं। लेकिन भारत में बिजली बनाने के लिए सूर्य का इस्तेमाल सर्वप्रथम 1983 में त्रिपुरा राज्य सरकार में एस एस ओ के पद पर कार्यरत एस पी गोन चौधुरी ने एक आदिवासी गांव में 100 वाट का सोलर फोटोवाल्टेक सिंचाई व संस्थागत प्रकाश प्लांट लगाया। पशिचम बंगाल में सुंदरवन की बसंती नामक बस्ती सबसे बड़ी सौर ऊर्जा से प्रकाशित हैं।
सूर्य ऊर्जा के एक नन्हे से हिस्से से हमारी सारी ऊर्जा आवश्यकताएं पूरी हो सकती हैं. सूर्य से बिजली पैदा करने की दो तकनीक उपलब्ध हैं. एक है फ़ोटोवॉल्टेक और दूसरी कंसंट्रेटिंग सोलर पावर. फ़ोटोवॉल्टेक प्रणाली में सूर्य की रोशनी सीधे बिजली में बदल जाती है. सूर्य फ़ोटोंस का उत्सर्जन करता है. जब ये फ़ोटोंस फ़ोटोवॉल्टेक सेल पर आघात करते हैं तो बिजली पैदा होती है. फ़ोटोवॉल्टेक सेल या पीवी सेल सिलिकॉन की दो परतों से बना होता है. जब सूर्य की रोशनी इस सैल पर पड़ती है तो उसकी परतों में एक विद्युतीय क्षेत्र तैयार हो जाता है. रोशनी जितनी तेज़ होगी उतनी अधिक बिजली पैदा होगी. पीवी सैल्स कई आकार और रंग के होते हैं. छतों की टाइलों से लेकर बड़े बड़े पैनल जैसे या पारदर्शी भी होते हैं.
कंसंट्रेटिंग सोलर पावर तकनीक में सूर्य की ऊर्जा से पानी उबाला जाता है और फिर उससे बिजली बनाई जाती है. इसमें लैन्स या शीशों का प्रयोग किया जाता है जिससे एक बड़े क्षेत्र की रोशनी को एक छोटी किरण में बदला जा सके. इस सकेंद्रित ताप का इस्तेमाल सामान्य बिजली संयंत्र में किया जाता है. पिछले कुछ वर्षों में इस तकनीक में तेज़ी से वृद्धि हुई है और इसकी लागत भी घटी है. सबसे बड़ा फ़ोटोवॉल्टेक बिजली संयंत्र स्पेन में है जो 60 मेगावॉट बिजली पैदा करता है. जर्मनी दूसरे नम्बर पर है. वहां यह उद्योग बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है. भारत में अभी इसका बहुत कम उपयोग हो रहा है। लेकिन कई बड़ी परियोजनाओं के प्रस्ताव हैं. दुनिया में अक्ष्य ऊर्जा के विकास की सबसे बड़ी योजना “जवाहरलाल नेहरू सौर ऊर्जा मिशन” को भारत सरकार ने 3 अगस्त 2009 को अनुमोदित कर दिया हैं। इस योजना के अन्तर्गत 2020 तक 20 गिगावाट, 2030 तक 100 गिगावाट तथा 2040 तक 200 गिगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन किया जायेगा। इस योजना कि अनुमानित लागत 92,000 करोड़ रूपये अर्थात 20 बिलियन अमेरिकी डालर होगी। 2020 में पूरी दूनिया में सौर ऊर्जा का उत्पादन 27 गिगावाट होगा और जिसका दौ तिहाई अर्थात 20 गिगावाट उत्पादन तो भारत करेगा।
यह योजना निश्चित ही प्रशंसनीय है और सरकार की तरफ से किया गया एक गम्भीर प्रयास है। यह न केवल साहसकि अक्षय ऊर्जा लक्ष्य है: बल्कि अमीर देशों से कार्बन उत्सर्जन को कम करने के साथ साथ आर्थिक व तकनीकि मदद प्राप्त करने की भी एक अच्छी योजना हैं। इस योजना के जरीये देश 2020 तक 10 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन कम करने में सफल हो सकता हैं। सौर ऊर्जा के विकास से ज्यादा रोजगार के अवसर बनते है। सौर ऊर्जा से न केवल ऊर्जा सुरक्षा होगी बल्कि रोजगार सुरक्षा भी सुनिशिचत है। थार रेगिस्तान का 35 हज़ार किलोमीटर का क्षेत्र इन परियोजनाओं के लिए सुरक्षित कर दिया गया है जहां 700 से 2100 गीगावॉट बिजली पैदा की जा सकेगी. न्यूटेक सोलर सिस्टम कम्पनी ने सोलर वाटर हीटर बनाया है इसे बढ़ावा देते हुए कर्नाटक सरकार ने प्रत्येक नई इमारत में इस संयंत्र को लगाना अनिर्वाय कर दिया हैं। हरियाणा व पंजाब सरकार ने कृषि कार्यो में सोलर पंप के उपयोग को बढ़ावा दे रही है। अजमेर में गरीब नवाज चिश्ती की दरगाह को भी 11 वीं पंचवर्षीय योजना में ही सौर ऊर्जा से प्रकाशित किया जायेगा। महाराष्टा सरकार ने महानगरों में जनवरी 2010 से बनने वाली हर नई व्यवसायिक ईमारत को अक्ष्य ऊर्जा स्त्रोतों से प्रकाशित करने का कानून बनाया हैं। सौर ऊर्जा के कुछ नकारात्मक पक्ष भी हैं जैसे इसके संयंत्र लगाने में लागत बहुत आती है इन दिनों में एक मेगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन की लागत 8 से 10 करोड़ रूपये आती हैं। जो 1998 में 30 करोड़ पड़ती थी। समय व तकनीकि विकास के साथ लागत कम हो जाती है। इनके लिए एक बड़ा इलाक़ा चाहिए, यह उन्ही जगह काम कर सकते हैं जहां सूर्य अधिक चमकता है और सूर्य की रोशनी चौबीसों घंटे उपलब्ध नहीं होती.
पवन चक्कियों का इस्तेमाल सदियों से होता आया है, लेकिन बिजली पैदा करने के लिए इसका विकास पिछली सदी में ही हुआ. पवन चक्की कई तरह की होती हैं, लेकिन जो सबसे अधिक प्रचलित हैं उनमें एक विशाल खंभे के ऊपरी भाग पर एक सिलेंडर लगा होता है जिसके मुंह पर 20 से 30 फ़ुट लम्बे और 3 से 4 फ़ुट चौड़े पंखे लगे रहते हैं. जब हवा चलती है तो ये पंखे घूमने लगते हैं. इससे पैदा हुई ऊर्जा को जेनेरेटर द्वारा बिजली में परिवर्तित किया जाता है. हमारे वायुमंडल में इतनी पवन ऊर्जा है जो दुनिया की वर्तमान बिजली खपत से पांच गुना अधिक बिजली पैदा कर सकती है. वर्ष 2008 में दुनिया की कुल बिजली खपत का 1.5 प्रतिशत हिस्सा पवन ऊर्जा से पैदा किया गया.
लेकिन इस दिशा में तेज़ी से प्रगति हो रही है और बड़े स्तर पर विंड फ़ार्म बनाए जा रहे हैं. डेनमार्क में 19 प्रतिशत बिजली इसी तरह पैदा की जाती है. भारत में इस समय पवन ऊर्जा से 9587.14 मेगावॉट बिजली पैदा करने की क्षमता है और 2012 तक इसमें 6000 मेगावॉट की बढ़ोतरी की जाएगी. कच्छ के रण में नमक के क्यारों में कुआ से पानी भरने में डीजल इंजन का प्रयोग किया जाता है। जो न केवल खर्चीला है बल्कि प्रदूषण का कारण भी है। अब वहां छोटीपवन चक्कियों का प्रयोग किया जाने लगा है। पवन, ऊर्जा का स्वच्छ व प्रदूषण रहित अक्षय स्रोत तो है, लेकिन इससे जुड़ी कुछ समस्याएं भी हैं जैसे ये महंगा है, यह हवा के बहने पर निर्भर है इसलिए हमेशा उपलब्ध नहीं होता, इसके लिए खुले मैदानों, समुद्री किनारों या ऊंचे स्थानों की आवश्यकता होती है जहां हवा का बहाव अधिक हो और ये देखने में अच्छे नहीं लगते. ध्वनि प्रदूषण भी होता है। हालांकि तकनीकि विकास से इसे कम किया जा सकता है।
हम सैकड़ों सालों से किसी न किसी रूप में जल ऊर्जा का इस्तेमाल करते रहे हैं. लेकिन पानी से बिजली पैदा करने का सबसे पुराना तरीक़ा है पन बिजली संयंत्र. अधिकतर पन बिजली संयंत्र बांध पर निर्भर करते हैं. नदी के पानी को बांध बनाकर एक जलाशय में एकत्र किया जाता है. फिर एक ऊंचाई से अचानक बांध के द्वार खोले जाते हैं जिससे पानी वेग के साथ एक पाइप लाइन में पहुंचता है. और जब वो टरबाइन पर आघात करता है तो उसके विशाल ब्लेड घूमने लगते हैं और उससे जुड़ा जेनरेटर चलने लगता है जिससे बिजली पैदा होती है. दुनिया भर में पन बिजली संयंत्र कुल बिजली का 24 प्रतिशत उत्पादन करते हैं और एक अरब से अधिक की आबादी को बिजली सप्लाई करते हैं.
दक्षिणी अमरीकी देश पेरागुए अपनी ज़रूरत की सारी बिजली पन बिजली संयंत्रो से बनाता है जबकि भारत में 21 प्रतिशत बिजली इनसे बनाती है. हालांकि पन बिजली संयंत्र लम्बे समय तक काम करते हैं और उन्हे चलाने में बहुत ख़र्च भी नहीं आता है, लेकिन अन्य ऊर्जा तकनोलॉजी की तरह इनकी भी कुछ कमियां हैं. बांध का टूटना सबसे बड़ा ख़तरा रहता है जिससे व्यापक नुक़सान हो सकता है. नदियों के पानी के साथ गाद भी आती है जो जलाशय में इकट्ठा होती रहती है और पानी जमा करने की क्षमता कम हो जाती है. पन बिजली परियोजनाओं से उस इलाक़े में रह रहे लोग विस्थापित हो जाते हैं और जल पर्यावरण पर भी प्रभाव पड़ता है.
ज्वारीय ऊर्जा एक तरह की पन बिजली है, जिसमें ज्वार-भाटे की ऊर्जा को बिजली में बदला जाता है. हालांकि इसका अभी बहुत इस्तेमाल नहीं हो रहा है लेकिन भविष्य में हो सकता है. पृथ्वी के घूमने और चंद्रमा और सूर्य की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के मिले जुले प्रभाव से समुद्र के जल स्तर में नियमित चढ़ाव और उतार आते हैं, जिन्हें ज्वार-भाटा कहा जाता है. ये आमतौर से हर साढ़े बारह घंटे पर आते हैं. ज्वारीय ऊर्जा पैदा करने के कई तरीकें हैं. इनमें प्रमुख हैं ज्वारीय बैराज और पन चक्कियां. ज्वारीय बैराज में नदी के मुहाने पर या समुद्र के कोल पर एक बैराज बनाया जाता है. जब ज्वार आता है तो वह इस बैराज में बनी सुरंगों से होकर गुज़रता है. इससे भीतर लगे टरबाइन चलने लगते हैं जिससे जेनरेटर चलता है और बिजली पैदा होती है. इसी तरह जब पानी लौटता है तो भी सुरंगों से होकर गुज़रता है और बिजली पैदा होती है.
दूसरा तरीक़ा है समुद्र तट से परे पानी के नीचे चक्कियां लगाना. ये एक तरह की जलमग्न पवन चक्कियां होती हैं. ये चक्कियां ज्वार भाटे से चलती हैं और बिजली पैदा होती है. पहला ज्वारीय ऊर्जा केंद्र फ्रांस में 1966 में बनकर तैयार हुआ था जिसकी क्षमता 240 मेगावॉट थी. ज्वारीय ऊर्जा केंद्र की विशेषता ये है कि ये पर्यावरण संबंधी समस्याएं पैदा नहीं करता. यानी ग्रीन हाउस गैसें या कचरा पैदा नहीं करता. ये विश्वसनीय है क्योंकि ज्वार भाटा नियमित रूप से आता है और इसे चलाना भी महंगा नहीं. लेकिन ज्वारीय बैराज बनाना काफ़ी महंगा पड़ता है और ये प्रतिदिन केवल 10 घंटे बिजली पैदा करता है. इसके लिए सही जगह ढूंढना बहुत महत्वपूर्ण होता है.
समुद्र में जो लहरें उठती हैं उससे भी बिजली पैदा की जा सकती है. ये लहरें हवा के कारण पैदा होती हैं. लहरों से बिजली पैदा करने के दो प्रमुख तरीक़े हैं. एक में बहुत बड़ा हौज़ बनाया जाता है जिसके भीतर टरबाइन और जेनरेटर लगे होते हैं. जब लहरें हौज़ के भीतर आती हैं तो उसमें मौजूद पानी ऊपर उठता गिरता है. इसका मतलब ये हुआ कि हौज़ के ऊपरी हिस्से में बने ख़ाली स्थान पर हवा ज़ोर से भीतर जाती है और बाहर आती है. यहीं टरबाइन लगा होता है जो हवा के प्रवाह से चलने लगता है और उससे जुड़ा जेनेरेटर भी चल पड़ता है जो बिजली पैदा करता है. एक और तरीक़ा है जिसे पैलामिस तरंग ऊर्जा परिवर्तक कहते हैं. इसका नाम पैलामिस नाम के सांप पर रखा गया है. इसमें बड़े-बड़े पाइपों को लोहे के स्प्रिंगों से जोड़ा जाता है और ये समुद्र की सतह पर तैरते रहते हैं.
ये रेलगाड़ी के पांच डिब्बों जितने बड़े होते हैं. इनके भीतर मोटर और जेनेरेटर लगे होते हैं. जब ये पाइप लहरों के साथ ऊपर नीचे होते हैं तो इस गति के कारण इनके भीतर लगा मोटर चलने लगता है जिससे जेनेरेटर चल पड़ता है जो बिजली पैदा करता है. दुनिया में पहला व्यावसायिक पैलामिस ऊर्जा परिवर्तक पुर्तगाल में लगाया गया था. इस तकनोलॉजी से मुफ्त ऊर्जा पैदा होती है और कोई कचरा नहीं बनता. इसे चलाना भी महंगा नहीं और काफ़ी मात्रा में ऊर्जा पैदा की जा सकती है. लेकिन क्योंकि यह तकनोलॉजी लहरों पर निर्भर है इसलिए अनियमित है. जब समुद्र में बड़ी लहरें उठती हैं तो बहुत ऊर्जा पैदा होती है और जब समुद्र शांत होता है तो बिल्कुल ऊर्जा पैदा नहीं होती.
पृथ्वी के केन्द्र का तापमान 6000 डिग्री सैल्सियस के आस पास है. धरती के भीतर हर 30-50 मीटर नीचे जाने पर एक डिग्री तापमान बढ़ता जाता है. दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में मानव हज़ारों सालों से भूतापीय ऊर्जा का इस्तेमाल खाना पकाने या गर्मी पैदा करने के लिए करता रहा है. धरती के नीचे गर्म चट्टानें पानी को गर्म करती हैं जिससे भाप पैदा होती है. इस प्रणाली में धरती के गर्म क्षेत्र तक एक सीधी सुरंग खोदी जाती है, जिससे ये भाप ऊपर आ सके. वैसे तो धरती के भीतर प्राकृतिक भूजल होता है लेकिन अगर नहीं है तो एक दूसरी सुरंग खोद कर पानी भीतर डाला जाता है. दूसरी सुरंग से भाप ऊपर आती है जिसे पाइपों के ज़रिये ऊर्जा केंद्र तक ले जाया जाता है जहां इससे टरबाइन चलाए जाते हैं. इससे जेनरेटर चलता है जो बिजली पैदा करता है. सबसे पहला भूतापीय बिजली केंद्र इटली में बनाया गया था. भूतापीय ऊर्जा ज्वालामुखी सक्रिय क्षेत्रों में ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण स्रोत है. जैसे आइसलैंड और न्यूज़ीलैंड. आइसलैंड में भूतापीय ऊर्जा का इस्तेमाल घरों को गर्म करने और बिजली पैदा करने के लिए किया जाता है.
भूतापीय ऊर्जा विश्वसनीय है, अक्षय है और इसके स्रोत हमारी आवश्यकताओं से कहीं अधिक ऊर्जा सप्लाई कर सकते हैं. लेकिन ड्रिल करके सुरंग बनाने और पृथ्वी के भीतर ऊर्जा के स्रोतों की खोज करने में करोड़ों डॉलर ख़र्च होते हैं और फिर भी सफलता की गारंटी नहीं होती। जयपुर स्थ्ति वाणिज्य कर विभाग की इमारत अर्थ ट्युनल कूलिंग सिस्टम यानी “जमीनी सुरंग से ठंडक प्रणाली” पर आधारित है जो न केवल ठण्डी रहती है बल्कि बिजली भी बचाती है। इस इमारत में एयर कण्डीशनर सिस्टम नहीं है ए सी व्यवस्था में पानी व बिजली ज्यादा खर्च होती है बल्कि साथ में क्लारो फ्लोरो कार्बन वाली गैसों का उत्सर्जन भी होता है। बिजली बचाने व प्रदूषण में कमी लाने में “अर्थ ट्युनल कूलिंग सिस्टम” कारगर साबित हो सकता है।
शहरी क्षेत्रों के कूड़ा व कचरें को रिसाइक्लिंग करके पुन: काम लायक बनाने में लगी राम्की एनवायरो इंजीनियर्स कम्पनी अब कचरे से बिजली बनाना शुरू किया है। कम्पनी के मुताबिक शहरी कचरे से एक मेगावाट बिजली बनाने की लागत 12 करोड़ रूपया तक पड़ती है। लेकिन इस प्रकार की तकनीक के प्रयोग को बढ़ावा मिलने से लागत कम हो सकती है। पटना में सुलभ इंटरनेशनल संस्था ने शहरी सौचालियों से बायोगैस का उत्पादन करके पूरी दूनिया में नाम कमाया है। आजकल बायोईंधन की खेती को वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत के तौर पर लिया जा रहा है। बायोईंधन का उत्पादन खाद्यान्न, तिलहन, सोयाबीन, खाद्य व अखाद्य तेलीय फसलों, गन्ना, सब्जिया आदि से किया जाता है। इस बायोईंधन को वैकल्पिक ग्रीन ऊर्जा कहा जाता है। देश में ग्रीनको कम्पनी मुख्यत चीनी मिल्स व खाद्य प्रसंस्करण कम्पनियों से कृषि कचरा इक्ट्ठा करके उससे स्वच्छ बिजली का उत्पादन करती है। मतलब यह है कि जैवपिंड से उत्पादित बिजली जीवाश्म ट्रायोड या कोग: कोयला, आयल व गैस की तरह ईंधन नहीं जलाती हैऔर वातावरण में कार्बन मोनोआक्साइड नहीं छोड़ती है। इसे बायोमास एनर्जी कहते है।
बंजर व बेकार पड़ी जमीन पर गैर खाद्य अनाज व तेल वाली फसलें जिन्हें कम पानी व खाद की जरूरत रहे, की खेती करके बायोईंधन का उत्पादन किया जा सकता है। लेकिन बायोईंधन वाली फसलों की खेती से अनाज, चारा व पानी की समस्या बढ़ सकती है। बायोईंधन फसलों की खेती से पारिस्थितिकीय खाद्य श्रृंखला और कृषि जैवविविधता को खतरा हो सकता है। नंदन बायोमैट्र्क्सि कम्पनी जट्रोफा से बायोईंधन का उत्पादन कर रही है। इसमें दो राय नहीं कि प्रारम्भ या अल्पकाल में अक्षय स्रोतों से ऊर्जा का उत्पादन करना महंगा होता हैं लेकिन एक बार प्लाण्ट स्थापित हो जाने के बाद दीर्घकाल में उत्पादन लागत कम हो जाती हैं। समय के साथ नई तकनीक के इजाद व इस्तेमाल से अक्षय ऊर्जा की उत्पादन लागत 50 फिसदी तक कम हो सकती हैं।
दि एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्युट ने अभी हाल ही में सोलर लालटेन तैयार की है इसे एक नेशनल प्लानिंग के तहत ग्रामीण घरों तक पहुंचाया जा सकता है। स्वच्छ कोयल तकनीक का प्रयोग से देश में कोयला आधारित बिजली संयंत्रों से निकली वाली कार्बन डाईआक्साइड जैसी गैसों को 60 से 70 फीसदी तक कम किया जा सकता है। नये ग्रीन बिळ्डिंग मानक व विद्युत उपकरणों व ईंधन सक्षम वाहनों के नियमो को सख्ती से लागू करने की जरूरत है। सीएफएल बल्बों व सार्वजनिक वाहनों के प्रयोग को प्रोत्साहित करने और प्राइवेट व पर्सनल साधनों के प्रयोग को हतोत्साहित करके 40 फीसदी तक वाहन आधारित प्रदूषण में कमी लायी जा सकती हैं इसे ऊर्जा क्षमता कहते है। इस प्रकार से हम एक साथ पर्यावरण व ऊर्जा दोनों की सुरक्षा कर सकते हैं। ऊर्जा उत्पादन व उपभोग और आर्थिक विकास “सब कुछ पर्यावरण में हो, इसके विरूद्ध कुछ न हो”। अक्षय ऊर्जा स्रोतों से न केवल ऊर्जा सुरक्षा हो सकती है, बल्कि जलवायु सुरक्षा भी की जा सकती। आर्थिक विकास को जारी रखने व पृथ्वी को बचाने का अक्षय ऊर्जा एक मात्र विकल्प बचा है।
सुवालाल जांगू, शोधार्थी, राजनीति विज्ञान विभाग, काशी हिन्दू विश्रव विद्यालय, वाराणसी Suwalaljangu@gmail.com

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